यह कहना था ढाई साल की बरखा का... क्यूँ ? नहीं पता, बस ज़िद थी... आज भी उसका ऐसा ही है :D जिस चीज़ के पीछे पड़ जाती है... पूरा किये बगैर मानती नहीं है... भगवान की दया है कि अब उसकी प्रायोरिटीज़ सही हैं... नहीं, हम दोनों ने बड़े हो कर, बहुत खादी के कुर्ते पहने. मम्मी धुलाते-धुलाते थक जातीं थीं... बहुत भारी होते थे, मेड कम्पलेन करती थी... उस पर, रंग भी जाता था, तो मम्मी अलग से भिगवातीं थीं... वो भी बहुत पैशनेट होतीं थीं. हर चीज़ के लिये... मतलब जब तक शरीर साथ देता था... उसके बाद पूर्वजों से पूजा-पाठ के कर्म-काण्ड के लिये प्रार्थना होती थी, ‘सही’ काम कराने के लिये... काम हो जाता था... तो हार मान लेतीं थीं, “करण वारो ऊव्हो”...
खैर, यह तसवीर है, बरखा के उसी मसूरी ट्रिप की... मम्मी, पापा के साथ... और इस समय, खानदान भर की चहेती बरखा, एक बढ़िया ‘होम-मेकर’ का रोल निभाने में पूरे पैशन से जुटी हुई है... उसके घर-वाले भी उतने ही ज़िद्दी हैं :D
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