Tuesday, December 19, 2017

Aamchi Mumbai- My Home

A candid pic of my city, taken from inside an auto-rickshaw.

For a couple of times when I saw posters such as this one, I thought, "bahut himmat hai is bihaari ko, ekdum blatantly bhojpuri mein daaru-soda ka ad kar raha hai!"/ This Bihari man seems to have lots of guts to make such a blatant ad in Bhojpuri, selling Alcohol and Soda (soda-water)... It took me a  while to understand that the poster is in fact in Marathi, about 'leaving' alcohol, about de-addiction :D

Monday, December 18, 2017

How to Order Your Wedding Cake

I was asked to write a 'How To' article (based on research material) by an online publishing house, and this is what got created.

“Wolf, Peter Wolfe is my husband’s name.
I was brought up in the U.S.A. My family had migrated during World War II. A German couple helped my young Jewish parents to flee from the clutches of The Third Reich. I was born on a big American Carrier in the middle of the Atlantic Ocean.

Time and distance had not come between their friendship. I was brought up to believe I would be married to Wolf. As a young girl, I was petrified. I loved my parents and understood what their feelings of gratitude were, but the idea of giving their daughter to the wolf! I somehow could not be comfortable with that.

As a result whenever I saw wedding cakes, I would imagine, on top of my wedding cake, the bride and the wolf!

When I was old enough, they showed me a picture of “ my wolf”. He was such a dish! I could not believe it. We started writing to each other, became friends and eventually decided to honor both our parents’ wishes. He agreed to live with me here. The day was decided. He came with his parents and we got married. And this honey, is the cake my Father baked in his Bakery for my wedding”, said Mrs. Wolf pointing towards the classic photograph on the wall. The three-tier cake had the Bride and the Wolf!

I had gotten Mrs. Wolfe’s reference through a colleague at work. I really did not know him that much, he just happened to pass by when I asked my close friend Betty about which Bakery to book for my cake. We had decided to get married exactly three months hence. John said, “I could not help overhearing, may I suggest “Jewish Bakery” at Eleventh Street? It is very special. She will give you all the trimmings you want and suggest something better keeping your style in mind. You must book your cake as soon as possible. Bakers generally take 4 to 6 months’ booking. Give my reference to the owner Mrs. Wolfe. She might be able to do something for you. Well, all the best”.

Mrs. Wolfe showed me the big album containing the best of her previous work. She explained how the trends keep changing. “Actually, the cake should be the culmination of the rest of the décor, the theme of your wedding.

“If you were having an outdoor wedding I would have suggested something like this icing décor. Look at the basket weave and the fresh floral pattern. Perfect for a Spring/ Summer wedding.

“Since your wedding is in Fall, how about this square one, with sugared fruit and Autumn leaves?

“These are especially made for winter weddings”, said Mrs. Wolfe as she showed me some beautiful cakes that had edible snowflakes and pinecones.


“ Like I said dear, the trends keep changing. Nowadays, people have started going back to the traditional three tier cakes…” Even before she had finished I said, “Yes, actually I want the one you had, but without the wolf”.

We both laughed. Mrs. Wolfe asked, “What flavor do you want dear? Why don’t you sample some of these pastries and tell me which one you like the best. You can also have three different flavors for the three tiers.”

Mrs. Wolfe was still smiling even as she wrote in her order book, ‘…smooth butter cream, lacework icing, silver base…’ while I admired the photograph of her wedding cake.

The cake was something our guests absolutely loved. It added to the splendor of the Evening. When Steve and I exchanged our vows, my colleague John Wolfe and his mother were there as special guests. I had the hall set up in old classic style too so all of it looked very ethereal. Three of my friends who got married since,  have gone to the Jewish Bakery.


Monday, December 11, 2017

Sindhi with Tamilian-Hindi and Bengali-Hindi

अजु माइय खे चयो मांस, “तुमको पूछना भूल गया, माशी, वह गरम पानी पीयेगा, अदरक वाला...” गैस सफा करे पयी, वात में परोठो बाक़ी हुयुस, चबायेंदे-चबायेंदे, मत्थो खबे-सजे पासे हिलायेंदे-हिलायेंदे चयें, “उम्हुम”... माँजी खिल्ल् निक्री वयी... माँ चयो माँस, “अच्छा हुआ, भईया के सामने नहीं पूछा!” त थोड़ी देर पो, कमरे में बोहारी पायेंदे, एक्सप्लेन करण लगी कि, “मैं पहला मटन-बिटन भी नहीं कायेगा, बच्चा को देखेगा न, सब बाहर में रकेगा, मेरा मम्मी बोलता, ‘यह अलग हो जायेगा, अलग हो जायेगा’, बोत गुस्सा करता, अभी मैं, गरम-गरम रहेगा तो तोड़ा मटन का लेगा, बस... तुम आच्छा देता है, वो मैं का लेगा न, बस, हो जायेगा|”

थोड़ी देर में माँ बुद्हायो माँस, “भईया को भी पसन्द नहीं है न, अदरक वाला पानी, मैं जबर्दस्ती पिलाता हूँ...”

पो पोछो लगायेंदे, दीवार साँ टिकी करे खिल्ली पयी, “ओह, इसके लिये!”

माँ चयो माँस, “सब लोग बोलता है ना चाय नहीं पीना चाहिये, इसके लिये”...

त चये ती, “नहीं अच्चा हे, अदरक का पानी अच्चा हे...”

माँ चयो माँस, “हाँ, सर्दी में तो आच्छा है ही, ना...|” (गुड़, अदरक और कुटी हुई काली-मिर्च वाला गरम पानी)

आहे साउथ-इंडीयन, तमिलियन, लेकिन मम्मी वारी बंगाली-हिन्दी समझी वेन्दी आ... खायण लाय कुछ ज्याँस त पुछ्दी आ, “क्या?” माँ एक्सप्लेन कयाँस त पसन्द वारी शै हुजेस, त झट चय्न्दी आ “कुच्छ बी दे-दे ना चलेगा, तुम अच्चा देते मेरको”... न त चयेंदी, “नहीं आज मेरा अच्चा नहीं हे/ नहीं, माँ, आज का के आया, नयी तो मैं बोलता तुमको” 

Friday, December 8, 2017

Fiction: Short Story- दो हज़ार का नोट


एक दिन अशोक नाम का बहेलिया, गाँव से, कलकत्ता के पार्क की तरफ़ जा रहा था| उसके हाथ में दो पिंजरे थे, जिनमें बहुत सुन्दर तोते थे| दूसरी कक्षा तक पढ़ा, सोलह साल का अशोक, चिड़िया पकड़ने में माहिर था| उनका ख़याल भी अच्छी तरह रखता था. उसकी दादी ने उसे अच्छी सीख दी थी, कि ‘तुम अपना काम मन लगा के करो, बाकी ऊपरवाला देख लेगा’... अशोक को आसमान इसी लिये बहुत पसन्द था... दादी ने बताया था कि उसके माँ-बाबा भी वहीं हैं... यहाँ उसे प्यार करने के लिये दादी हैं और सताने के लिये छोटी बहन, चिरईया है... उस रोज़ भी वो आसमान ही की तरफ़ देखते हुए जा रहा था, कि अचानक तोते पंख फड़फड़ाने लगे, थोड़ी ही दूरी पर एक सांप नज़र आया| उसने आव-देखा-न-ताव, और अपनी छड़ी घास पर पटकने लगा| सांप खतरा भांपते ही अपना रास्ता बदल कर, वापस घने पेड़ों की तरफ़ चला गया| अशोक के अनजाने ही एक आदमी ने यह देख लिया था| उसने तुरन्त पास खेल रहे अपने ढाई-तीन साल के बच्चे की तरफ़ देखा और अशोक के पास आया| अशोक की पीठ थपथपाते हुए उसने अपना बटुआ निकाला... “भाई, तुम्हें तो ईनाम मिलना चाहिये!” अशोक ने कहा, “नहीं साहब, हम तो अपनी और तोतों की सोच रहे थे... मेहनत का खाते हैं|” इस पर साहब ने कहा, “अच्छा, तो यह तोते मुझे बेच दो... पर वहाँ गाड़ी तक ले चलो|” अशोक ने पिंजरों को गाड़ी की पिछली सीट पर रखा| और साहब ने बच्चे को अगली पैसेंजर सीट पर बेल्ट बाँध कर बिठाया| फिर खुद भी ड्राईविंग सीट पर बैठ गये| अशोक ने कहा, “साहब आपके तीस रुपये होते हैं|” साहब ने दो हज़ार रुपये का नोट निकाल कर अशोक को पकड़ा दिया, और कहा, “बहस नहीं!” और ड्राइव करके चल दिये! अशोक दो हज़ार रुपये के नये नोट को बहुत देर तक देखता रहा| फिर उसने नोट को जेब में डाल लिया और झटपट घर की तरफ़ चल पड़ा|
“कब निकाले हैं सरकार दुई हजार के नोट? लागत तो असली है|”... गुलाब चचा, दादी के मुँह-बोले भाई थे जिन्होंने अशोक को चिड़िया पकड़ना सिखाया था| वे चार और लोगों के साथ मिल कर नोट की पड़ताल कर रहे थे... जिनमें से ज़ाहिर है, किसी ने भी दो हज़ार का नोट पहले नहीं देखा था... बुंदु चाचा ने नोट निहारते हुए कहा, “अरे हम बता रहे हैं न, हमरा मोनू भान्जा है, शहर में लाटरी बेचत है उससे एक बार सलाह पूछे लेते हैं, दूई हजार रुपया के कितना ईनाम मिली है”... तभी भोला चाचा कहते हैं, “असली नोट के रंग कभी ना जात है... एका पानी में डिबो-क देखें, का होत है...?” इस पर अशोक तुरन्त चिल्ला पड़ा, “दादी ! ऐ चाचा, अभी, नोट इधर दे दो!”
दो हज़ार रुपये के नोट को देखने आये लोग बस अभी-अभी उठे थे, कि दादी ने अशोक से कहा, “बेटा, पईसा को अच्छा काम में लगाना चाहिये... तुम्हरे बाबा भी अपनी मौसी को बहुत मानते रहे... दूर की भले है, पर हमरी तो छोटी बहन ही है| अब वो मौसा के साथ तीरथ पे सीमला जाने को बताय रही... ओके ये पईसा काम आ जायेगा”| अशोक मुँह बिचका के ताक ही रहा था, कि चिरैया स्कूल से वापस आ गयी| उसने पूछा, “दादी, सिमला में कौन सा तीरथ होता है? वो तो घूमने की जगह है...” अशोक बोलता है, “शाब्बाश चिरईया!” दादी बोली, “अरे, मन्दिर-वन्दिर तो होगा जरूर! सब जगह होत है...” तब अशोक ने पकड़ लिया, “तो फिर इतना दूर जाने की क्या जरूरत है? मन्दिर तो यहाँ भी कितने सारे हैं!” कहते-कहते देखता है, चिरईया उसके जेब की तरफ़ एकटक देख रही है... पॉकेट झीना था, उसमें से नोट का गुलाबी-पन झलक रहा था| अशोक नोट दिखाते हुए बताने लगा, “आज एक साहब ने ईनाम दिया...” चिरईया बोली, “दादी! इसने अनजान आदमी से चीज ली!” दादी ने कहा, “अरे सुन तो, तेरा भईया आज एक बहुत बहादुरी का काम कर के आया है... एक बच्चा के सांप से बचाया, बचुआ के बाबा ईनाम दिये हैं|” अशोक ने आगे जोड़ा, “हम तो ले भी नहीं रहे थे, साहब ने तोते खरीदे, हमने तीस रुपये मांगे, पर वह दो हजार का नोट पकड़ा के चले गये!” तैसे ही दादी की दूर की बहन चली आयीं... “बधाई हो, हम भी खुसखबरी सुने हैं!”
दादी उनको पास में बैठाते हुए अपने बच्चों से बोलीं, “यही तो बात है, जो हम हमेसा कहते हैं, तुम लोग मानते नहीं हो, ‘तुम अपना काम करो, ऊपरवाला झोली भर देगा’...” चिरईया बोली, “आप तो कहती हैं, ‘बाकी ऊपरवाला देख लेगा’...” दादी ने जवाब दिया, “हाँ तो वही मतलब हुआ ना! तुम्हरे जैसे पढ़े-लिखे थोड़ाई हैं हम, जो एक-दम से वही बात बोल दें!”
दादी की बहन बोलीं, “अब हमको समझ में आ गया... पईसा को इसकी सादी के लिये जमा कर दो... और बस ये महीना खतम होते-होते इसकी सादी करा दो... इतना पढ़ गयी है, कितना बहस करती है, और जादा पढ़ेगी तो सुसराल में कैसे चलेगी? और लड़का भी जादा पढ़ा नहीं लेना, उससे बचुआ नाही होत है... मतलब दुई-तीन साल लागत है! हम देखे हैं न, अपनी आँखिन से, हमरी ननद का बेटा का ऐसई हुआ... इतना साल कोई जिम्मेवारी नहीं, आजादी के आदत हो गये, अब तीन साल बाद बचुआ आया तब मालूम पड़त है... (नोट को निहारते हुए बोलीं) अभी हाथ में पईसा है, अभी कोई भी लड़का पकड़ के फीक्स कर दो और बाबा के आसरम में चिरईया के सादी दे दो!”
चिरईया गुस्से से ताक रही थी उनको...
अपनी छोटी बहन का स्कूल छुड़वा कर, जल्दी से किसी भी लड़के से शादी कराने की बात पर गुस्सा तो अशोक को भी आ रहा था, पर दादी की दूर की बहन को कुछ कहने से, दादी बुरा मान जातीं... इसलिए अशोक ने चिरईया के कंधे पर हाथ रख कर उसे शांत रहने का इशारा किया, और ईनाम में मिला दो हज़ार रुपये का नोट वापस अपनी जेब में रख लिया... फिर दादी से कहा, “हम लोग अभी दोस्तों से मिल कर आते हैं...” दादी ने कहा, “अरे पईसा को तो घर में रख कर जाओ, रस्ता में कहीं गिर-गिरा गया...?” अशोक ने दादी की बहन की तरफ़ शक से देख कर फिर दादी की तरफ़ अनमने से देखा, तो दादी की बहन बोलीं, “यही तो दिखाने जाय रहा है! चार दोस्त देख के बतियावें नाहीं तो पईसा का मजा काहे से आये!” दादी ने जवाब दिया, “अरे, बहादुरी के काम भी तो किये रहिन!” उनकी दूर की बहन चुप कैसे बैठतीं, “हमरी ननद के बेटा कलकत्ता सहर में टैपिंग भी करत है और गाड़ी भी चलात है, अब पिरैभेट हो गये हैं...” दादी कह रहीं थी, “अच्छा, पिरैभेट हो गये हैं...”, अशोक और चिरईया खिसक गये|
रास्ते में अशोक बोला, “तू चिंता मत कर| जितना पढ़ना है पढ़... अफसर बन जाना, फिर कोई कुछ नहीं कहेगा! सब तेरे ही पास आयेंगे अर्जी ले-के|” तभी कुछ दूरी पर पत्तों की सरसराहट हुई| दोनों भाई-बहन रुक गये|
पता चला इनके दोस्त अपने बचपने का छुपन-छुपाई का खेल शुरू कर चुके थे! अशोक ने फ़ौरन जा के छुट्टन की पीठ पर छू के धप्पा कह दिया और पूछा, “आज ये कैसे खेलने लगे सब?” छुट्टन ने बताया, “नरेन से झगड़ा हो गया, वो अपनी गेंद और बल्ला ले के चला गया... सब इस चंद्रू की गलती है... पानी में रह कर मगर से दुश्मनी करता है... कभी सरपंच के बेटे से लड़ना चाहिये? अब बोल रहे हैं ‘माफ़ी मांग लो’ तो उल्टे फिल्मी डायलाग मारता है!” तब तक सारे दोस्त वहाँ पहुँच चुके थे, अशोक ने चंद्रू से पूछा, “क्यूँ किया तूने ऐसा?” चंद्रू कहता है, “क्यूँ, क्या गरीब इन्सान नहीं होता? क्या गाँव में सिर्फ़ बड़े आदमी के बेटे को बोलने का हक़ है?”
अशोक बोलता है, “हाँ, क्योंकि टीचर का बेटा बहुत बोर करता! अभी चल उससे माफ़ी मांग, तो सब लोग ढंग का, मर्दों वाला खेल, शुरू करें!” इस पर चंद्रू कहता है, “कायर कहीं के!” चिरईया अपने भाई की जेब की तरफ़ लपकी और नोट निकालते हुए बोली, “मेरे भईया को कायर न बोलना, ये देखो इसकी वीरता का ईनाम! एक बच्चे की जान बचाई है इसने सांप से!” बहुत हो-हल्ले के बीच चंद्रू कहता है... “हाँ, तो हो गया ना खेल का इंतज़ाम! इस पैसे से इतने गेंद और बल्ले आ जायेंगे कि अगले एक साल तक हमको नरेन् का मुँह नहीं देखना पड़ेगा!”
किसी तरह चंद्रू को मनाया गया, और पकड़म-पकड़ाई का खेल खेला गया|
अगले दिन, शाम को चौपाल पर भीड़ जमा थी| सभी बड़े बुज़ुर्ग पहले से ही थे... अब जवान लोग भी पहुँच गये थे| नयी बत्तीसी घर पर छोड़ आये, पोपले मुँह वाले रामदीन काका ने कहा, “हमरी बिरादरी में सुरु से ही बहादुर लोग रहे... वो याद है काली भईया, बुधिया के बाबू कैसे गुलाबो बाई को जमींदार से बचा के लाये थे... किसी को पता नहीं चलने दिये थे, नहीं तो पूरा जिला के मरद पहुँच जाते बचाने...” तभी भोला चचा पूछ बैठे, “ओके कितना ईनाम मिला फिर?”
गुलाब चाचा ने भरी चौपाल के सामने समूचे गाँव की इज्जत बचा ली, “अरे, वो सब जाय दियो काका, ओकी उमर और रही, यहाँ तो अपने बालक असोक ने दूध पीते बच्चे को सांप से बचाया, और एक हजार रुपया ईनाम पाया... अभी, हम तो कह रहे हैं, लाटरी में लगा देते, पर ओकी दादी नहीं मान रही है... सब लोग मिल कर बोलिये न, सायद से समझ जाये... ”
कहीं से आवाज़ आयी, “क्यों बेटा, चिड़िया बेचन का काम अच्छा चल रहा है? नहीं तो, सुना है, कलकत्ता में बहुत लोग कुत्ता पालता है, गाँव में तो कितना कुत्ता आवारा घूमता है, पकड़ के बेच दो!”
नत्थू काका ने कहा, “वहाँ जाने से तो रिक्शा वाला लूट लेत है, एगो रिक्शा डाल लेओ...”
भोला काका कहते हैं, “रिक्शा फिर भी महँगा होत है, कपड़ा सिलाई के मसीन आ जात है...”
फिर किसी कोने से आवाज़ आयी, “अरे कलकत्ता सहर में तो सुने हैं बड़ा लोग जान के नाम पैसा जमा करत है, जब जान जावत है, तो पैसा मिली है|” उस आवाज़ को तो जो लताड़ा लोगों ने! दादी बोलीं, “हमरे बचुआ की जो जान का नाम लेत है, उसको बद-दुआ लगे हमरी... और किसी के पास कोई काम की सलाह होय तो बोलो, नाय तो जायी!”
तब गाँव के मुखिया ने कहा, “अरे बैठो जीजी, इन लोगन का तो दिमाग कम है, तुम हमरी बात सुनो... हम लोगन को एक दूसरे का काम आना चाही, आज जब असोक का पास में पईसा है, तो दूसरे को दे-दे| कल जब वो कमायेगा तो असोक को पईसा मिलेगा...” दादी पूछती हैं, “बहुत जादा दिमाग लगाये हो मुखिया! थोड़ा और सोचना, सायद से कोई काम का बात आ जाये... जय राम जी की...” इस बार दादी सचमुच उठ गयीं और उनके पीछे-पीछे चिरईया भी चल दी|
मुखिया ने रोका, “अरे जीजी, सुनो तो, सोसल बैंक बनाने को कह रहे हैं...”
दादी ने कहा, “इससे अच्छा हम अपनी चिरईया के सादी न करा देई ?” इस बात पर तो जो लोग सरपंच के साथ थे, वे भी सर हिलाने लगे... चिरईया डर गयी|
दादी और चिरईया आगे निकल चुकीं थीं... लोगों से शाबाशी पाने के बाद अशोक भी घर की तरफ़ वापस जा रहा था... कि पीछे से सरपंच का बेटा नरेन् आ पहुंचा...
नरेन् ने अशोक की पीठ थपथपाते हुए कहा, “भाई काम तो तुमने अच्छा किया, पर अब इसका ‘टैक्स’ भी तो भरना पड़ेगा... मतलब बाबा कह रहे थे, कि अगर किसी भी तरह से सरकार को पता चल गया, तो उसको ईनाम में से आधा पैसा दे देना पड़ेगा... सोचने वाली बात है... या तो आदमी पैसा को कोई बैंक में जमा कर दे, और या फिर डर के मारे खरच भी ना सके, कि कब पुलिस वाले  वारन्ट ले के घर में आ जायें! पैसा रखना कोई चिड़िया पकड़ने जैसा आसान काम नहीं है... सोच-समझ के, बड़ों की सलाह से काम करना, हैं? अच्छा फिर...” यह कह कर नरेन् अपने रास्ते चला गया|
अशोक भोला था, भोंदू नहीं था| समझ गया था, कि सरपंच का बेटा धमकी दे कर गया है, कि उसके बाबा की बात चुपचाप मान लेनी चाहिये, नहीं तो वो सरकारी मेहमान बन सकता है... डर तो उसे लग रहा था... पर अन्दर-ही-अन्दर जानता था, दादी के सामने सरपंच की भी नहीं चलती है... मुश्किल-से-मुश्किल समय में, भले ही अपने भगवान जी कहा-सुनी करनी पड़े, दादी सब कुछ ठीक करवा देती थीं...
अशोक घर पहुँच कर, मुँह-हाथ धो कर आया, तो दादी ने खाना परोसते हुए कहा, “बताओ, पईसा हमरे पास में आया है, चिंता पूरा सहर को हो रहा है!” अशोक ने नरेन् की बात बताई तो दादी गुर्राई, “हमरे सामने बोले तो बताएं, कौन, कितना टैक्स देते हैं! जबरदस्ती बचुआ के धमकी दे दिये! ओ दिन भूल गये, जब ओकी जोरू हमरे पास से बेटुआ होअन के लड्डू ले गयी... माई के किरपा से लड़का हो गया, अभी उसी लड़का के हाथ धमकी भिजवाये हैं! जब हम बोल दिये, ओ पईसा से चिरईया के सादी करवायेंगे, तो करवायेंगे! कर ले जिसको जो करना है, बईठे हैं यहीं पर! समझे न? और ये सब बात के लिये अभी नींद खराब करके कोई मतलब नहीं है... ऊपर वाला अपने ही रास्ता सुझायेगा... चुप-चाप खाना खा के सो जाओ...” गैस की लाइट पर तीनों चुप-चाप खाने लगे| अशोक ने निवाला लेते-लेते, चिरईया की ओर देखा... वो सहमी हुई लग रही थी... अशोक हल्के से मुस्कुरा के कहता है, “मतलब, खा के पसर जाओ और मार के ससर जाओ! है ना, दादी?” तीनों ने एक दूसरे को देखा, और थोड़ा सा हँस पड़े...
अगली सुबह जब चिरईया स्कूल जा रही थी, तो उसकी नज़र बाहर लगे होर्डिन्ग के पोस्टर पर पड़ी| सुन्दर कलाकारी वाले उस पोस्टर पर लिखा था, “नैशनल स्कूल ऑफ़ डिज़ाइन में  दाख़िले और स्कॉलरशिप के लिये इस पते पर लिखें...”
चिरईया ने स्कूल में मौका पा कर, अपनी टीचर से सारी बातें बताई, किस तरह उसका भईया चिड़ियाँ पकड़ता है, कैसे उसके भईया ने दो हज़ार रुपये जीते, कैसे सरपंच ने धमकी भिजवाई, कैसे दादी ने बिना-मतलब चिरईया की शादी की प्रतिज्ञा कर ली, और वह ख़ुद तो आर्टिस्ट बनना चाहती है...! टीचर ने कहा, “बेटा सांस लो, और ध्यान से सुनो| अठारह साल के पहले लड़की की शादी कराने वाले सब लोगों को जेल हो जायेगी| कहो तो मैं दादी को समझाने चलूँ... दूसरी बात, पचास हज़ार रुपये के नीचे, गिफ्ट-टैक्स नहीं लगता है| तीसरी बात, अभी फिलहाल, रोज़ मन लगा कर, होमवर्क के बाद अपनी ड्राइंग, पेन्टिंग की प्रैक्टिस करती रहो, और स्कूल में ला कर अपनी क्राफ्ट-टीचर से पूछती रहो| बाकी, दो साल जम कर पढ़ाई करो... एक बार दसवीं पूरी हो जाये, फिर छुट्टियों में सबसे बड़े आर्ट स्कूलों में कैसे एडमिशन होगा, पता करना| मैं भी पता करूंगी, बाक़ी टीचर्स से भी पूछेंगे... और तब तक, कम्प्यूटर लैब भी शुरू हो जायेगा, इन्टरनेट से पता लगाना| इस काम में तो तुम्हारा भईया भी मदद कर सकता है, वह तो रेल से भी कितनी यात्राएं करता है और जगह-जगह जा कर कितने लोगों से मिलता है... सबसे इस बारे में पूछ सकता है... और अभी तुम वह दो हज़ार रुपये, पोस्ट ऑफिस में जमा कर दो... भाई-बहन दोनों मिल कर हर महीने, कुछ-न-कुछ बचत खाते में जमा करते रहना... फिर तुम आगे की पढ़ाई आसानी से कर सकोगी... जो बनना चाहो बन जाना, और अशोक से भी कहो, तुरन्त अपनी पढ़ाई वापस शुरू करे| भले नाईट-स्कूल में भर्ती हो जाये... सब याद रहेगा ना?” कह कर टीचर अगली कक्षा में पढ़ाने चलीं गयीं|
इतना सब कुछ टीचर ने इतनी आसानी से सुलझा दिया, चिरईया को विश्वास नहीं हो रहा था... उसने घर जा कर दादी से सब बताया... दादी बोलीं, “अब ये उमर में सब हमको जेल भेजने पे तुला हुआ है! ईनाम के पईसा मिलने पर मुखिया पुलीस भेजेगा, और अपने पोती के सादी करने में, टीचर!”

अशोक ने दादी को समझाया, “अरे नहीं दादी, इसका मतलब यह, कि हम सब लोगों को मुखिया की धमकी से डरने की कोई जरूरत नहीं है! और इसी खुशी में हलवा बनना चाहिये! फिर आगे, चिरईया बड़ी हो कर आर्टिस्ट बन के रहेगी! जिसको जो करना हो, आ के कर ले, दादी बैठी है यहीं पर!”